बुल्ला साहब की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 5
आठ पहर चौंसठ घरी, जन बुल्ला घर ध्यान।
नहिं जानो कौनी घरी, आइ मिलैं भगवान॥
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अछै रंग में रंगिया, दीन्ह्यो प्रान अकोल।
उनमुनि मुद्रा भस्म धरि, बोलत अमृत बोल॥
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जग आये जग जागिये, पागिये हरि के नाम।
बुल्ला कहै बिचारि कै, छोड़ि देहु तन धाम॥
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बिना नीर बिनु मालिहीं, बिनु सींचे रंग होय।
बिनु नैनन तहँ दरसनो, अस अचरज इक सोय॥
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बोलत डोलत हँसि खेलत, आपुहिं करत कलोल।
अरज करों बिन दामहीं, बुल्लहिं लीजै मोल॥
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