पाहुड़ दोहा-21

paahuD dohaa-21

मुनि रामसिंह

मुनि रामसिंह

पाहुड़ दोहा-21

मुनि रामसिंह

विसयकसायहं रंजियउ अप्पहिं चितु देइ।

बंधिवि दुक्कियकम्मडा चिरु संसारु भमेइ॥

इंदियविसय घएवि वढ करि मोहहं परिचाउ।

अणुदिणु झावहि परमपउ तो एहउ ववसाउ॥

णिज्जियसासो णिप्फंदलोयणो मुक्कसयलवावारो।

एवाइं अवत्थ गओ सो जोयउ णत्थि संदेहो॥

तुट्ठे मणवावारे भग्गे तह रायरोससब्भावे।

परमप्पयम्मि अप्पे परिट्टिए होइ णिव्वाणं॥

विसया सेवहि जीव तुहुं छंडिवि अप्पसहाउ।

अण्णइ दुग्गइ जाइसिहि तं एहउ ववसाउ॥

मंतु तंतु धेउ धारणु।

वि उच्छासह किज्जइ कारणु।।

एमइ परमसुक्खु मुणि सुव्वइ।

एही गलगल कासु रुच्चइ॥

उववास विसेस करिवि बहु एहु वि संवरु होइ।

पुच्छइ किं बहु वित्थरिण मा पुच्छिज्जइ कोइ॥

तउ करि दहविहु धम्मु करि जिणभासिउ सुपसिद्धु।

कम्महं णिज्जर एह जिय फुहु अक्खिउ मइं तुज्झु॥

दहविहु जिणवरभासियउ धम्मु अहिंसासारु।

अहो जिय भावहि एक्कमणु जिम तोडहि संसारु॥

भवि भवि दंसणु मलरहिउ भवि भवि करउं समाहि।

भवि भवि रिसि गुरु होइ महु णिहयमणुब्भववाहि॥

जो जीव विषय-कषायों में रमकर आत्मा में चित्त नहीं देता, वह दुष्कृत कर्मों में बंधकर दीर्घ काल तक संसार में भ्रमण करता है।

हे वत्स! इंद्रिय-विषयों को छोड़, मोह का भी परित्याग कर, अनुदिन परमपद की उपासना कर। तू भी परमात्मा बन जाएगा।

निर्जित श्वास, निस्पद लोचन और सकल व्यापार से मुक्त—ऐसी अवस्था की प्राप्ति वही योग है, इसमें संदेह नहीं।

जब मन का व्यापार टूट जाए, राग-रोष का भाव नष्ट हो जाए और आत्मा परमपद में स्थित हो जाए, तभी निर्वाण होता है।

रे जीव! तू आत्मस्वभाव को छोड़कर विषयों का सेवन करता है तो तेरा यह कर्म ऐसा है कि तू दुर्गति में जाएगा।

जिसमें कोई मंत्र है तंत्र। ध्येय है धारण और श्वासोश्वास भी नहीं है, इनमें से किसी को कारण बनाए बिना ही जो परमसुख प्राप्त होता है, उसमें मुनि सोते हैं, लीन होते हैं। कोलाहल उनको नहीं रूचता।

विशेष उपवास करने से अधिक सवर होता है। बहुत विस्तार क्यों पूछता है? अब किसी से मत पूछ।

हे जीव! जिनवर-भाषित सुप्रसिद्ध तप कर, दशविध धर्म कर, कर्म की निर्जरा कर—यह स्पष्ट मार्ग मैंने तुझे बता दिया।

अहो जीव! जिनवर भाषित धर्म को तथा सारभूत अहिंसा धर्म को तू एकाग्र-मन से इस प्रकार स्वीकार, जिससे कि तेरा संसार टूट जाए।

भव-भव में मेरा सम्यग्दर्शन निर्मल रहे, भव-भव में मैं समाधि धारण करूँ, भव-भव में ऋषि-मुनि मेरे गुरू हों, और मन में उत्पन्न होनेवाली व्याधि का निग्रह हो।

स्रोत :
  • पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 42)
  • संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
  • रचनाकार : मुनि राम सिंह
  • प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
  • संस्करण : 1992

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