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फिर कुछ नहीं बहुत कुछ एक रोज़

phir kuch nahin bahut kuch ek roz

आमिर हमज़ा

अन्य

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आमिर हमज़ा

फिर कुछ नहीं बहुत कुछ एक रोज़

आमिर हमज़ा

और अधिकआमिर हमज़ा

    एक कवि कविता में हरा पत्ता तोड़ने की गुज़ारिश करता था

    यों मैंने कभी हरा पत्ता नहीं तोड़ा।

    एक कवि कविता में उदासी के हरा होने के पक्ष में बोलता था शाख़ से टूट जाने की हद तक

    यों मैं उदासी के हरे की शाख़ से टूट जाने की हद तक प्रतीक्षा करता था।

    हवा की छुअन ऐसी थी उन दिनों कि पत्ते चिनार के

    चिनार की देह से छूट-छूट शून्य में बिखर ज़मीं का बोसा लेते।

    यों फिर आवारगी में लगभग ख़ाक हुआ कवि एक

    प्यार में चिनार की पत्तियाँ अपनी प्रेमिका की पीठ पर रख

    प्यार बोता था।

    वह उन दिनों सिर्फ़ छुअन की भाषा जानता था

    जिसे वह होंठों की रोशनाई से गढ़ता था।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आमिर हमज़ा
    • प्रकाशन : समालोचन

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