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लौटे यात्री का वक्तव्य

laute yatri ka waktawy

अज्ञेय

अज्ञेय

लौटे यात्री का वक्तव्य

अज्ञेय

सभी जगह

जो उपजाता है अन्न, पालता सबको,

उसकी झुकी कमर है।

सभी जगह

जो शास्ता है, जो बागडोर थामे है, उस की दीठ मंद है—

आँखों पर है चढ़ा हुआ मोटा चश्मा जो

प्राय: धूमिल भी होता है।

सभी जगह

जिसकी मुट्ठी में ताक़त है

उसका भेजा है एक और भेड़िए,

दूसरी पर मर्कट का।

सभी जगह

जो रंग-बिरंगी जाज़म पर फैलाकर सपनों की मनियारी

घात लगाते हैं गाहक की,

दिल मुर्ग़ी का रखते हैं।

सभी जगह

जो मूल्यवान है सकुचा रहता है; अदृश्य, सीपी के मोती-सा,

जो मिलता नहीं बिना सागर में डूबे :

सभी जगह

जो छिछला है, ओछा है,

नक़ली कीमख़ाब पर सजा हुआ बैठा है लकदक,

चौंधाता आँखों को, जब तक ठोकर लगे, पैर रपटे

या जेब कटे, नीयत बिगड़े, हो मतिभ्रंश, दिल डँसा जाए!

सभी जगह

है एक प्रश्न एक :

क्या दोगे? कितना दे सकते हो?

यही पूछते हैं जो फिर भेदक आँखों से

लेते हैं टटोल अंटी में क्या है :

यही दूसरे पूछ, नाप लेते हैं कितना

लहू देह में बाक़ी होगा :

यही तीसरे, आँक रहे जो

मांस-पेशियों में कितना है श्रम-बल—

(बिना छुए या टोए जैसे चूज़े को गाहक टोता है।)

यही और, जो तिनकों को सिखलाते

बँधी हुई गड्डी की ताक़त, किंतु बाँधने वाला तार

सदा अपनी मुट्ठी में रखते हैं :

यही और, जिनकी लोलुपता

देने का आमंत्रण सबको देती है,

क्योंकि सिवा इस दिन के बस उनको लेना ही लेना है।

और यही वे भी, जिनकी जिज्ञासा—

कभी नहीं होती रूपायित, मुखरित

जो अनासक्त हैं, जिन्हें स्वयं कुछ नहीं किसी से लेना है :

क्या दोगे? कितना दोगे—दे सकते हो—

मुझे नहीं, जग भर को, जीवन-भर को,

प्यार?

स्रोत :
  • पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 92)
  • संपादक : अशोक वाजपेयी
  • रचनाकार : अज्ञेय
  • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
  • संस्करण : 1997

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