कविताओं के छपने में क्या रखा है

kawitaon ke chhapne mein kya rakha hai

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

कविताओं के छपने में क्या रखा है

ज्याेति शोभा

कविताओं के लिखने में भी क्या रखा है।

आख़िर क़स्बे और गाँवों के चित्र यों ही दरिद्र हैं उन्हें कविताओं में सज़ा के क्या फ़ायदा। शहर पाषाण युग के संन्यासी हैं उन्हें क्या सरोकार किसी संवेग के अभिनय से। फिर प्रेम है, जो हमेशा से है अज्ञातवास की चीज़ उसे भी अख़बार और पत्रिकाएँ क्यों हड़प लें।

कविताओं के छपने की अभिलाषा में अँधेरा क्यों गाढ़ा करना।

जब जी उमसा हो तो कविता लिखकर पंखा झल लिया करो। या फिर लिखे काग़ज़ को सरका दिया करो पलंग के पाए तले, सोवो तो धरती स्थिर रहे।

पहले भी बहुत शाइरों की क़मीज़ तरस के लायक़ हुई पड़ी है। तुम लिख कर अपनी साड़ियों के बीच ही दबा दो कोई ग़ज़ल, की दुरुस्त रहे उनकी कलफ़।

दरअस्ल, कविताओं की किताब कोई नहीं ख़रीदता जैसे उड़ती हुई-सी धुन सुनते हैं सब पर कोई नहीं देखता रेलों में इकतारा बजाने वालों की तरफ़।

कुम्हार बन जाना जब कविता मनमर्ज़ी करती हो तुम्हारे चाक पर।

देखना सड़क के उस पार एक मटियाला-सा पब है, मटमैली रोशनी आती रहती है वहाँ से दिन-दुपहर। ख़ाली बखत वहीं रख आया करो।

कविता लिखकर बोझ बढ़ा लोगे अपने शरीर का और मन का भी। अच्छा है कि जब लिखने का जी करे चौराहे तक टहल आया करो।

स्रोत :
  • रचनाकार : ज्योति शोभा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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