कहीं बीच में होती है कविता

kahin beech mein hoti hai kawita

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

कहीं बीच में होती है कविता

ज्याेति शोभा

इतना सँभाल कर ले जाते हो तुम

स्वप्नों में

फिर भी कई जगह से खुल जाते हैं स्पर्श के बंध

जैसे असंख्य पत्ते झर जाते हैं

एक ज़रा-सी हवा में

किताबें कहती हैं

बंद रहने से कीड़े लग जाते हैं मेरी कहानी को

मुझे याद आता है

अनगिन बार जो लौट आई तुम्हारे शहर से

होंठों पर जमी सूखी बारिश का भी

ऐसा कोई कारन होगा

अंत के आरंभ में जीवन होता है

कहीं बीच में होती है कविता

हाँ, सभी मानुष होते हैं कवि

कम अज़ कम उतने तो ज़रूर ही

जितने में सही बताते हैं

कितनी चोट लगी

स्पर्श के अंतहीन दिनों बाद

स्वाँग लगता है प्रेम

जैसे ख़ुसरो कभी नहीं हुए

कभी नहीं पढ़ी गईं ग़ज़लें

जैसे कभी ठीक नहीं किए थे जूड़ों में फूल

हमेशा से अस्त-व्यस्त थे

इतने दुःस्वप्नों में आते हो तुम

फिर भी ख़ुश होती है यह रुत

बेसुरे रागों को साधती है गहराती साँझ में

अजीब क़िस्म के लोग सवाल करते हैं

‘क्यों करती हो ऐसो!’

जी करता है

उन्हें बताऊँ : ‘तीसरी बार

रेल छूट जाए तो ऐसा ही करती है प्रेमिका’

इन छोटे दिनों के बाद और भी फीका पड़ेगा

तुम्हारा चेहरा

क्या काफ़ी नहीं था

धान कम हुई इन दिनों

कवियों का पाला पड़ा

कल चौबीस घंटे भी नहीं टिकती

हाट की संगत में ख़राब हो रही हैं मछलियाँ

घाटे का कारोबार है प्रतीक्षा

मगर ख़ुसरो से भी पूछा और ग़ालिब से भी

दोनों अपने मक़बरों में यही कर रहे हैं

ख़राब हो रही है कविता

इतनी छाया हिलती है तुम्हारी छाया के आस-पास

इतने हल्के हाथों से अलग करती हूँ मैं

कैसे उलझते हो

प्यार में छल की तरह

जानते हैं मेरे होंठ भी

पानी से पानी निकालता कठिन है ऐसे समय

लार भरी होती है जीवित प्रेतों में

अलग युग है यह

अलग सदी है।

स्रोत :
  • रचनाकार : ज्योति शोभा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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