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मैं राख होना चाहता हूँ

main rakh hona chahta hoon

रवि प्रकाश

रवि प्रकाश

मैं राख होना चाहता हूँ

रवि प्रकाश

मैं जिसे तलाश कर रहा हूँ

वह मेरी परछाइयों के साथ

इस शाम में घुल रही है!

बच रही हैं कुछ टूटी हुई स्मृतियाँ

जहाँ से अजीब-सी गंध उठ रही है।

टूटे हुए चश्मे,

मन पर बोझ की तरह लटक रहे हैं।

मेरी पहचान को आईने इनकार कर चुके हैं।

खँडहरों में सुलगती बेचैन साँसें

कबूतरों के साथ

शांति की तलाश में भटक गई हैं।

सातवें आसमान पर बैठने की चाहत को

सात समंदर पार वाले राजा ने क़ैद कर लिया है।

लगता है कि पूरी की पूरी सदी लग जाएगी

सुलगकर आग होने में—

मैं राख होना चाहता हूँ।

सुलगना,

आग होना,

और राख होना

दरअसल, शाम में तुम्हारे साथ मिल जाना है।

मैंने देखा है—

परछाई, शाम और राख के रंग को

सब ताप के बाद की तासीर!

स्रोत :
  • रचनाकार : रवि प्रकाश
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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