एक स्त्री मेरे भीतर

ek istri mere bhitar

पवन करण

पवन करण

एक स्त्री मेरे भीतर

पवन करण

एक स्त्री मेरे भीतर दीवार से पीठ टिकाए खड़ी है उदास

वह मेरे भीतर ही रहती है हमेशा

भीतर ही बुदबुदाती है रोती है भीतर ही

भीतर ही अपनी ख़ामोशी बिछाकर लेट जाती है

किसी ज़रा-सी बात पर हो उठती है वह द्रवित

कोई बात ज़रा से में भर देती है उसकी आँख

किसी बात पर सुबकने लगती है वह

किसी बात पर हिचकियाँ भरते हुए करने लगती है विलाप

वह उसी तरह कराहती है मेरे भीतर जैसे मेरे जन्म के बाद

एक-एक कर चार लड़कियों को जन्म देकर

अपनी देह में जड़ें जमा चुके रोग से लड़ते हुए मेरी माँ

बिस्तर पर पड़े-पड़े मृत्यु से पहले जीवन के लिए कराहती थी

वह उसी तरह अपने को करती है अपमानित महसूस

जैसे सामूहिक बलात्कार के बाद एक स्त्री

अकेले में अपनी देह के बारे में सोचती है

और ख़ुद के प्रति ग़ुस्से और घृणा से भर उठती है

वह उसी तरह तिल-तिल मरती है मेरे भीतर

जैसे पति की मृत्यु के बाद एक स्त्री की आँख से

हमेशा के लिए खदेड़ दिया जाता है पुरुष का चेहरा

और एक चेहराविहीन पुरुष लगातार

उसके अँधेरे में उतरकर लूटता है उसे बर्बर

वह उसी तरह मेरे भीतर खीझती है

जैसे खूँटे पर बँधे-बँधे एक स्त्री

अपने सपनों को सड़ता हुआ देखती है

और सलाख़ों को अपने दाँतों से काटने की करती है कोशिश

आधी रात को आकाश उसकी नींद में

विषैला होकर बरसता है निरंतर

वह मेरे भीतर उसी तरह ख़ाली हाथ रहती है

जैसे ख़ाली हाथ बाहर दुनिया की सारी स्त्रियाँ

उसे इस तरह रहता देख लगता है जैसे

उसने अपने बदन पर जो कपड़े पहन रखे हैं

वे कपड़े भी हों उसके, उसने जो चप्पलें पहन रखी हैं

अपने पैरों में, वे भी हों उसके नाप की

वह जो मेरे भीतर बैठी है, मुँह सिए चुपचाप

किसी दृश्य के लिए मुझे मानते हुए ज़िम्मेवार

होते हुए चाहती है देखना मेरे साथ संगसार

किसी घटना के लिए वह थूकना चाहती है मेरे मुँह पर

किसी अन्याय के लिए चढ़ा देना चाहती है मुझे वह फाँसी

स्रोत :
  • पुस्तक : स्त्री मेरे भीतर (पृष्ठ 79)
  • रचनाकार : पवन करण
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 2006

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