कील-क़ब्ज़े

keel qabze

संतोष कुमार चतुर्वेदी

दरवाज़े झूल रहे हैं

दरवाज़े खुल रहे हैं

दरवाज़ों से ही एक अलग

शक्ल बनी है इस घर की

शक्ल है इस शरीर की

शक्ल है इस संसद की

लेकिन जिन सहारों पर

टिके हैं दरवाज़े ठढिया से

वही अदृश्य हैं

इस समूचे परिदृश्य से

क़ब्ज़े

चुपचाप

दिन-रात

टाँगे रहते हैं

अपने कंधे पर दरवाज़ों को

खिड़कियों को

जैसे कोई पिता लिए हो कंधे पर

अपने नवजात बच्चे को

जैसे किसी पौधे पर खिल रहे हों फूल

अक्सर कहते हैं लोग कि

कोई कब तक किसी को सहारा देता है

बड़े भी अक्सर खड़ा करके छोड़ देते हैं बच्चे को

अपने पाँवों पर चलने के लिए

लेकिन क़ब्ज़े तोड़ते हैं यह मिथक

आजीवन इन दरवाज़ों को अपना सहारा देकर

यह साधना नहीं सबके बस की

कभी किसी ने तारीफ़ की इनकी

ही सुनी कभी किसी ने उफ़ इनकी

दरअसल, यह सब कील-क़ब्ज़े की महिमा है

जिनकी बदौलत झूल रहे हैं दरवाज़े

ख़ुशी में झूम रहे हैं दरवाज़े

खुल रहे हैं दरवाज़े

झूल रहे हैं दरवाज़े

स्रोत :
  • रचनाकार : संतोष कुमार चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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