अकेला आदमी

akela adami

विष्णु खरे

विष्णु खरे

अकेला आदमी

विष्णु खरे

अकेला आदमी लौटता है बहुत रात गए या शायद पूरी रात बाद भी

घर के ख़ालीपन को स्मृतियों के गुच्छे से खोलता हुआ

अगर वे लोग होते अगर वे लोग होते

दिमाग़ में रह-रहकर एक अधखुला दरवाज़ा टकराता है

अगर वे लोग होते तो वह देखती प्रेम में या रोष में

उसके पीछे-पीछे

समय से पहले होशियार हो गई वह होती जागती हुई

छोटे दोनों सो चुके होते

शिकायत और कैफ़ियत के बाद

तीनों जागते हुए दोनों सोते हुओं को एक साथ प्यार करते

और वे कुनमुनाते और चौंकते नींद में

करवट बदलते हुए गालों को हाथों से ढँककर नन्हा प्रतिवाद करते हुए

अकेला आदमी उस समय लौटता है जब नल जा चुका होता है

रसोई की बत्ती जलाकर व्यस्त तिलचट्टों को व्यग्र करता है

पीतल की बाल्टी में परसों के पानी पर

चींटे के पंख जैसी इंद्रधनुषी जिल्द है

उसे निथारता है वह होती सोचता हुआ

बर्तनों पर उसके ही होने की गर्द है

मनी-प्लांट की शीशियों में उसी की अनुपस्थिति की बू

व्यस्त होने के कई तरीक़े ईजाद करता है अकेला आदमी

बक्सों में भरे काग़ज़ों को सहेजना उनमें सबसे जटिल है

पहले ही हाथ में मिलता है वह ख़त तो उसे उसने कलकत्ता लिखा था

पहली बार उसे पिता बनाने से पहले

पुरानी तस्वीरें आँखों में लिए वह स्मृतियों में विस्फारित है

देखते-देखते कितना वक़्त गुज़र गया की पिष्टोक्ति को

अचानक वास्तविक महसूस करते हुए

अकेला आदमी पाता है कि कुछ भी उसका नहीं है

घर को खोलने की गंध बड़ा आईना पुराने बक्स

पीले अख़बार अल्मारियों के हैंगर उसके नहीं हैं

कपड़े सुखाने की डोर फड़फड़ाते कैलेंडर

सब उनके हैं और सब उससे ऊबे हुए हैं

क्योंकि उसका होना उनमें कोई आवाज़ और अर्थ पैदा नहीं करता

उसकी अपनी किताबें और अपने रिकॉर्ड तक उसके नहीं हैं

उन्हें वह नन्हें उत्सुक हाथों की गिरफ़्त से वंचित

यूँ ही बिछा देता है और वे

बेजान पड़े रहते हैं अपनी सुरक्षा में

अकेला आदमी पहुँचता है बस्ती के ढाबे में रात गए

जब अलूमीनियम के ख़ाली भगोने मँजने लगे हैं

सिर्फ़ दाल और दही बचा है उसे बताया जाता है

इस उम्मीद में कि वह चला जाएगा

बहुत है वही लाओ कहकर वह बाहर

हिलती हुई कुर्सी पर बैठता है

एक बहुत छोटा मरियल कुत्ता बेहद ख़ुश

फुर्ती से दुम हिलाता उसके पास खड़ा हो जाता है

उनींदे भुनभुनाते हुए पहाड़ी लड़के द्वारा

टेबिल पर रखी इकट्ठी सीली रोटियों की तरफ़

चमकती कनखियों से देखता हुआ—

दाल से कंकड़ और दही से बाल सावधानी से अलग करता हुआ

वह तीसरी रोटी के बाद उठ खड़ा होता है

और इंतज़ार करता है कि बग़ल की दीवार से

मालिक वापिस लौटे पैसे लेने के लिए

जिसकी औरत इस तरफ़ पीठ किए दिन-भर का गल्ला गिनती है

उसके हाथ की रेज़गारी की तरफ़ से उदासीन

कभी-कभी थोड़ी शराब पीकर और/या साथ लेकर

लौटता है अकेला आदमी

ख़ुद ही गिलास साफ़ करता है

डिब्बों को हिलाकर देखता है नमकीन किसमें था

अकेले गिलास को बीच तक भरता है

सर में वह दर्द नहीं है उसके होने की गूँज है

शराब रात और ग्रामोफ़ोन पर नौशाद का पुराना रिकॉर्ड

उसे कमज़ोर बना रहे हैं

और वह पुरानी फीकी साड़ी सिले हुए स्कूली जूते

टूटी हुई गुड़िया और ग्राइप वॉटर की ख़ाली शीशी को

उठा-उठाकर बड़बड़ाने लगता है

वह वचन देने लगता है अनुपस्थित उसको

उसे सालने लगते हैं वे दुख

जो वह उसे लगातार देता आया है

हिसाब लगाता है कि अब तक वह उसे क्या दे सका है

घर की हर एक सस्ती चीज़ देखता है

जो महीनों के उधार पर लाई गई है

उसकी एड़ियाँ फट गई हैं और हाथ राख से खुरदरे

शरीर पर कोई उल्लेखनीय गहना नहीं

लेकिन कितनी ख़ुश और संतुष्ट है वह

जब अपने दस बरस पुराने लोहे के नीले बक्से में

अपना और अपने बच्चों का सामान सहेजती है

अकेला आदमी अपना आपा खो चुका है

ख़ुद पर तरस खाने की हदों से लौट-लौट रहा है

उसे याद आने लगी है पाँचवीं क्लास की उस साँवली लड़की की

जो एक मीठी पावरोटी पर ख़ुश

पैदल स्कूल जाती है निर्मम चौराहे पार करती हुई

याद आती है उससे छोटी की

जो उसे हाथ पर काटकर पिटी थी

और हमेशा ख़ुश उसकी जो अब चलना सीख रहा है

और अचानक थक कर कहीं भी सो जाता है

अकेला आदमी छटपटाकर पाता है

कि वह उन सबसे बहुत प्यार करता है

बहुत-बहुत माफ़ी माँगता है

पूरे कपड़े पहने हुए सो जाता है

बिस्तर पर जिसमें उन सबकी गंध है

जिन्हें वह सपने में अपने साथ रेलगाड़ी में आते हुए देखता है

स्रोत :
  • पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 31)
  • रचनाकार : विष्णु खरे
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 1998

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