अनुकांक्षा

anukanksha

जोशना बैनर्जी आडवानी

एक अनुकांक्षा इतनी क्रोधित है कि

उसके अंदर सिंकती हैं कई रोटियाँ,

सिकुड़ते हैं राजमार्ग और वह त्रिनेत्र से

युद्ध की घोषणा करती है

एक अनुकांक्षा इतनी मौन है कि

तुमसे कभी नहीं पूछेगी कि उन्नीस अठ्ठे

कितना होता है और सेंधा नमक में क्या-

क्या गुण हैं

एक अनुकांक्षा इतनी निर्भीक है कि

भागकर मनचाहे वर से विवाह कर

लेती है और सारे शृंगार उतार कर

चुपचाप घर वापस जाती है

एक अनुकांक्षा इतनी हठी है कि जीत

आती है पाँच सौ मीटर की रेस और

निकाल लेती है पुराने कैसेट से अपने

पूर्व-प्रेमी का गड्डमड्ड चेहरा

एक अनुकांक्षा इतनी डरी हुई है

कि तकिए के नीचे से कभी नहीं

निकलेगी, चौबीसों घंटे पेट के

बल पड़ी रहती है

एक अनुकांक्षा इतनी गोपनीय है

कि जीवन को डी-कोड करती

रहती है, उसे ईश्वर की नहीं

अपराध की ज़रूरत है

एक अनुकांक्षा इतनी छोटी है कि

अचानक ही आटे के कनस्तर से

निकल आती है और फ़्रिज खोलते ही

ग़ायब हो जाती है

एक असभ्य अनुकांक्षा जूतों में

पड़ी रहती है

एक अनुकांक्षा छुरी से निकाल लेती

है मेरा रक्त

एक अनुकांक्षा आपके मन में जीवन

भर बिना कुछ कहे रह सकती है

एक अनुकांक्षा दराज़ में विलाप करती है

हम इन अनुकांक्षाओं के प्रति कितने क्रूर हैं

अनुकांक्षाओं की अमरबेल

हमारी अनुकांक्षित आत्मा में

कई अनुकांक्षाएँ लिए बढ़ती

चली जाती है—

रुदन में, वृष्टि में, सुख में

मैं इन अनुकांक्षाओं के प्रति

नतमस्तक हूँ

स्रोत :
  • रचनाकार : जोशना बैनर्जी आडवानी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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