अधिकतर चुनी हुई चीज़ों में लगती है फफूँद

adhiktar chuni hui chizon mein lagti hai phaphund

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

अधिकतर चुनी हुई चीज़ों में लगती है फफूँद

ज्याेति शोभा

अधिकतर चुनी हुई चीज़ों में लगती है फफूँद। खाल पर निश्चय ही लगती है और अगर मनुष्य की हो तो वह मृत्यु तक भी नहीं रुकती।

हर चीज़ नष्ट होने के लिए होती है, ऐसा हम सिर्फ़ दुःख के दिनों में मानते हैं। वस्तुत: उसी समय खाल पर रही होती है चमक, जो सकुचाती है हड्डियों की लंबी प्रतीक्षा का प्रतिबिंब दिखाने में। उसी समय नींद में दीखते हैं शीशम के जंगल जिनमें अँधेरे से ज़्यादा डर घुसा रहता है दो डालों के बीच फिर चाहे वह अपराह्न का पहर हो।

खिलौनों की तरह बहुत दिन ताखों पर रखे संवाद की फफूँद हटती ही नहीं है जब तक वापस खेलना शुरू करो, जब तक यह कहो : मैं ही ग़लत हूँ। यों सब व्यर्थ की चीज़ें हैं जिन पर यह चढ़कर चिढ़ाती है हमें किंतु हम चींटियों के दल जैसे हो जाते हैं उस समय, ज़रूरत से ज़्यादा क्रमबद्ध होकर कोटरों में उतरते हैं।

जल के जमा होने की जगह कोई नहीं ठहरता, सिवाय प्रेमी और फफूँद के। अधिकतर तो जलचर भी नहीं जानते कि उनकी देह इसी अपरिचित ऊष्मा में थिरकती है।

मुड़कर देखने से समझ नहीं आता किंतु काठ की फफूँद सबसे अबोध होती है, ऋतुओं की साज़िश का शिकार। अर्थी में फफूँद नहीं लगती। वह साफ़, उज्जवल रहती है पूरी अवधि में, नष्ट होने की सीमा से पूर्व ही नष्ट हो जाती है।

स्रोत :
  • रचनाकार : ज्योति शोभा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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