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दिन का सेहरा

din ka sehra

देवेंद्र कुमार बंगाली

अन्य

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और अधिकदेवेंद्र कुमार बंगाली

    माथे दिन का सेहरा

    धूप-सा खिला चेहरा।

    पुरवइया डोल गई

    घर, आँगन, दरवाज़े की

    साँकल खोल गई

    फूलों-सा मन ठहरा

    लगता सब हरा-भरा

    बाग़ से, बग़ीचे से

    नदियों को बहते देखा

    पुल के नीचे से

    क्या उथला, क्या गहरा

    जो कुछ हो खरा-खरा।

    साह धूप घड़ियों के

    डंफले पर क़ायम है

    बोल कुछ लकड़ियों के

    डीह, बरम का पहरा

    ख़ुश हैं फागू महरा।

    कानों के कच्चे हैं

    बूढ़ों का दावा है, अभी

    आप बच्चे हैं

    कैसा हिस्सा-बखरा।

    बात-बात में लफरा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक पेड़ चाँदनी (पृष्ठ 87)
    • रचनाकार : देवेंद्र कुमार
    • प्रकाशन : राजेश प्रकाशन
    • संस्करण : 1993

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