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‘क़िस्साग्राम’ का क़िस्सा

 

‘क़िस्साग्राम’ उपन्यास की शुरुआत जिस मंदिर के खंडित होने से हुई है, उसके लेखन का काल उस मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा का समय है। उपन्यासकार प्रभात रंजन इस बात को ख़ुद इस तरह से कहते हैं, ‘‘अन्हारी नामक किसी गाँव को न मैं जानता हूँ, न उन घटनाओं का मैं साक्षी रहा; लेकिन शुक्र है कि क़िस्से-कहानियों ने मुझे उनसे जोड़ दिया। इन्हें सुना था पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में और आज जब लिखने बैठा तो लगा, जैसे यह आज के समय की ही कहानी हो...’’ तो क्या सचमुच में पिछली शताब्दी से आज के समय के जमा कुल तीस-पैंतीस वर्षों में कुछ नहीं बदला है! दरअस्ल, जो बदला है उसी की कहानी ‘क़िस्साग्राम’ है। 

इस उपन्यास के कवर पेज पर इंस्टाग्राम का लोगो है, फिर उपन्यास का नाम और फिर उसके नीचे एक अदृश्य व्यक्ति के हाथ में गदा है। यही अदृश्य व्यक्ति पिछली शताब्दी के आख़िरी दशक से लेकर अभी तक का समय है और यह समय उपन्यास के भीतर आता है।

उपन्यास भी इंस्टा की छोटी-छोटी कहानियों (रील्स) के कोलाज सरीखा है। 15 शीर्षकों में यह एक पूरा आख्यान है। इससे गुज़रते हुए आप आजादी के बाद बनी सबसे विभाजित सामाजिक संरचना को नज़दीक से देख सकते हैं। एक ऐसा कालखंड जिसमें किसी थ्रिलर फ़िल्म-सा रोमांच है। आर्थिक सुधार की राह पर क़दम रखती भारत की विशाल युवा आबादी है और एक विवादित ढाँचे के इर्द-गिर्द उठता हुआ बवंडर है, जिसने आस्था और धर्म के पूरे चरित्र को बदलकर रख दिया। उपन्यास का केंद्र जो ‘अन्हारी’ गाँव है, वह पिछले तीन-चार दशकों के हिंदुस्तान का रूपक है। एक विवादित ढाँचे की जगह मंदिर-निर्माण को लेकर उठी हवा ने भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को तार-तार करके रख दिया। आस्था की जगह भीड़ दिखलाई देने लगी।

उपन्यास का मुख्य पात्र छकौरी पहलवान पिछड़ी जाति (यादव) का था। वह अपनी पहलवानी के लिए उसी तरह मशहूर होता चला गया जैसे चतौरा हनुमान। लोग तो यह भी कहते हैं कि हनुमान जी के आशीर्वाद से ही छकौरी इतना बड़ा पहलवान बना है। एक दिन जनकपुर के दंगल में उसकी हार और चतौरा हनुमान जी का खंडित होना, चमन पांडे का उदय और मंदिर की प्रतिष्ठा और हनुमानी ध्वजा के फहराने की कहानी भारतीय राजनीति के बदलते चरित्र की गहराई से शिनाख़्त करती है।

मंडल, कमंडल और भूमंडल के बीच ही भारतीय समाज पिछले चार दशकों से जी रहा है। मंडल के मसीहा भले वी.पी. सिंह हों, पर उसके नायक लालू और मुलायम ही रहे जो पिछड़ों में यादव जाति से आते हैं। कमंडल की राजनीति का शीर्ष चेहरा भले आडवाणी रहे हों, लेकिन कमंडल के उद्देश्य को उसके लक्ष्य तक नरेंद्र मोदी ही लेकर आए जो सामान्य वर्ण से पिछड़े में तब्दील होकर पिछड़ों का हिंदूकरण करने में बहुत हद तक सफल रहे। मंडल और कमंडल के बीच भारत का भूमंडल अपना विकास कर रहा है। ऐसे समय में—‘‘इतिहास और क़िस्से-कहानियों की सीमा-रेखा मिटती जा रही थी। इतिहास-पुस्तकों को पढ़ने वाले कम होते जा रहे थे, लेकिन इतिहासकारों के लिखे इतिहास-ग्रंथों को झूठ बताने वाले बढ़ते जा रहे थे। जिन्होंने इतिहास बनाया था, उनको इतिहास से ही मिटाने की कोशिश हो रही थी।’’ 

भूमंडलीय राजनीति ने लाखों-करोड़ों लोगों को नए-नए सपने दिखाए। नई उम्मीद पैदा की। एक छोटी-सी नई दुनिया बन रही थी। जहाँ छोटे-छोटे सपनों में जीने वाले लोग थे। ज़माना बदल रहा था। नए-नए रंगरूट अपनी पहचान को लेकर सामने आ रहे थे। पुरानी राजनीति और पुराने लोग अब अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की लड़ाई लड़ रहे थे। सुशील राय जैसा नवयुवक अचानक छात्र राजनीति के सहारे दस्तक देने लगा था। पुराना सिंडिकेट सिस्टम अब दम तोड़ने लगा था। मंदिर आस्था की जगह अब राजनीति का विषय बन चुका था। मंदिर के विग्रह की जगह उपन्यासकार ने हनुमान जी के भभूत का इस्तेमाल किया और भभूत का असर ऐसा कि अन्हारी गाँव का एक गँजेड़ी चमन हनुमान के दूत के रूप में प्रसिद्धि पाकर राजनीति के शीर्ष पर चला जाता है। ठीक वैसे ही जैसे माँ गंगा ने कहकर बुलाया कहने वाला गंगापुत्र! जिसके पीछे-पीछे सब उसके स्वर में अपना स्वर मिलाने को आतुर हैं।

चतौरा हनुमान के खंडित होने के प्रश्न से भी बड़ा है चमन—जो चमन पांडे था—होता जाता है। चमन सवर्ण कुल में पैदा हुआ। सामाजिक-न्यायिक बराबरी की लड़ाई को लड़ती जनता ने फिर कब जातीय श्रेष्ठता की पोषक सवर्ण बिरादरी को उस ऊँचाई तक पहुँचा दिया, जिसे ऊँचाई से नीचे लाने की लड़ाई में वह ‘अब की सावन भादों में / गोरी कलाइयाँ कादों में' तक का नारा लगा रही थी।

मलेरिया और कालाजार की जगह ग़रीबी और जहालत को रेणु जी 1954 में ‘मैला आँचल’ के भीतर रेखांकित कर रहे थे और उसे सबसे बड़ी बीमारी मान रहे थे। 70 वर्ष बाद भी इस बीमारी का ज़िक्र ‘क़िस्साग्राम’ का एक अल्पसंख्यक चरित्र अपने मुँह से करता है, ‘‘मेरे अब्बा हुजूर कहते थे कि अँग्रेज़ों से लड़कर जीत गए, लेकिन अभी भी उससे बड़ा दुश्मन हमारे मुल्क में बाक़ी है—जहालत।’’ रेणु जी का इलाक़ा मुल्क में तब्दील हो चुका है। जाति की लड़ाई और अस्मिता के प्रश्न को धर्म के आवरण में लाने के लिए ईश्वर के रूप का सहारा लिया जाता है। इस उपन्यास का यह बयान देखिए : ‘‘लोगों ने झूठ पर संदेह करना छोड़ दिया था। बोलने वाले कम होते जा रहे थे, सुनने वाले बढ़ते जा रहे थे।’’ यह ‘था/थे’ अब ‘है/हैं’ में तब्दील हो चुका है।

उपन्यासकार ने ‘क़िस्साग्राम’ में समय का सच का रचा है। यह सच चतौरा हनुमान, छकौरी पहलवान, सुशील राय, रामस्वार्थ राय, बुरहान ख़ान और बिरंचीलाल शाह जैसे चरित्र के द्वारा ‘अन्हारी’ गाँव के माध्यम से हमारे पास आया है। ‘क़िस्साग्राम’ हमें उस यथार्थ-जीवन की ओर ले जाता है, जहाँ लोग या तो मिथक में जीते थे या इतिहास में; जिसमें गल्प अधिक होता था, तत्त्व कम। उनका कोई वर्तमान नहीं था। पर संयोग देखिए ‘क़िस्साग्राम’ का पूरा क़िस्सा ही वर्तमान का है और इस वर्तमान को चमन के संदेश से समझा जा सकता है, ‘‘राजनीति की सीढ़ियाँ वही नहीं चढ़ते जो दिन-रात राजनीति, सेवा, देशहित, प्रदेश हित, जाति, धर्म की बात करते रहते हैं। कई बार कोई ऐसा नेता भी आता है जो कुछ नहीं कहता, लेकिन लोग उसी को वोट देते हैं। कारण यह कि वह सच्चा लगता है। आजकल समाज में सच्चे लोगों की कमी जो हो गई है!’’

प्रभात रंजन ने इस उपन्यास की भाषा को बेहद सरल रखा है। बिहार के तिरहुत और मिथिलांचल में प्रयोग आने वाले स्थानीय मुहावरों का उपयोग, राजनीतिक नारों, नई हिंदी के बदलते शब्द-रूप मुख्य कार्यक्रम की जगह ‘मेन कार्यक्रम’ का प्रयोग, छोटे-छोटे वाक्यों के द्वारा स्पष्ट कहन-शैली ने उपन्यास को रोचक बना दिया है। पिछले चार दशकों में खंडित आस्था के मूर्तिकरण का एक दस्तावेज़नुमा प्रयास है—‘क़िस्साग्राम’!

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