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सम्पूर्णानंद

1891 - 1969 | वाराणसी, उत्तर प्रदेश

सम्पूर्णानंद की संपूर्ण रचनाएँ

उद्धरण 4

कुश्ती का उद्देश्य सुरुचिपूर्ण स्पर्धा ही होनी चाहिए, निर्दयता का प्रसार नहीं। जिसके शरीर में बल है और पास में मल्लशास्त्र का ज्ञान है वह आवश्यकता पड़ने पर शत्रु को परास्त कर सकता है और दुष्ट को दंड दे सकता है परंतु अखाड़े में प्रतिस्पर्धी के हाथ-पाँव तोड़ना कदापि श्लाघ्य नहीं है।

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योगी होते हुए भी सच्चा कलाकार वितर्क का अतिक्रमण करके विचार और आनंद की भूमिकाओं के बीच पेंगें मारता रहता है। साधना के अभाव के कारण वह किसी एक जगह टिक नहीं सकता, परंतु थोड़ी देर के लिए उसको सत्य की जो आभा देख पड़ती है, जड़ चेतन के आवरण के पीछे अर्द्ध-नारीश्वर की जो झलक मिलती है, वह उसको इस जगत के ऊपर उठा देती है, उसके जीवन को पवित्र और प्रकाशमय बना देती है।

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बुरा कर्म बुरा है चाहे वह कृत हो, चाहे कारित और चाहे अनुमोदित।

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महापुरुष अपने युग का प्रतीक है और समसामयिक शक्तियों का नाभिबिंदु होता है।

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पुस्तकें 3

 

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