मोहन राकेश की कहानियाँ
जानवर और जानवर
बहुत-से लोग यहाँ-वहाँ सिर लटकाए बैठे थे जैसे किसी का मातम करने आए हों। कुछ लोग अपनी पोटलियाँ खोलकर खाना खा रहे थे। दो-एक व्यक्ति पगड़ियाँ सिर के नीचे रखकर कम्पाउंड के बाहर सड़क के किनारे बिखर गए थे। छोले-कुलचे वाले का रोज़गार गर्म था, और कमेटी के नल
एक और ज़िंदगी
...और उस एक क्षण के लिए प्रकाश के हृदय की धड़कन जैसे रुकी रही। कितना विचित्र था वह क्षण—आकाश से टूटकर गिरे हुए नक्षत्र जैसा! कोहरे के वक्ष में एक लकीर-सी खींचकर वह क्षण सहसा व्यतीत हो गया। कोहरे में से गुज़रकर जाती हुई आकृतियों को उसने एक बार फिर ध्यान
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere