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राही मासूम रज़ा

1927 - 1992

राही मासूम रज़ा की संपूर्ण रचनाएँ

कहानी 1

 

उद्धरण 21

नई नस्ल तो हमारी नस्ल से भी ज़्यादा घाटे में है। हमारे पास कोई ख़्वाब नहीं है। मगर इनके पास तो झूठे ख़्वाब हैं।

प्रश्न हमारा पीछा नहीं छोड़ते। मनुष्य मौत को जीत सकता है, परंतु प्रश्न को नहीं जीत सकता। कोई-न-कोई प्रश्न दुम के पीछे लगा ही रहता है।

भाषा की लड़ाई दरअसल नफ़े-नुकसान की लड़ाई है। सवाल भाषा का नहीं है। सवाल है नौकरी का!

लगता ऐसा है कि ईमानदार लोगों को हिंदू-मुसलमान बनाने में बेरोज़गारी का हाथ भी है।

वफ़ादारी की तराज़ू में दो ही पल्ले होते हैं मिस्टर।

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