भूपति की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 56
आदर करि राखो कितो, करि है औगुन संठ।
हर राखो विष कंठ में, कियो नील वै कंठ॥
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संगति दोष न पंडितनि, रह खलनि के संग।
बिषधर विष ससि ईस में, अपने-अपने रंग॥
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सर सर जद्यपि मंजु हैं, फूले कंज रसाल।
बिन मानस मानस मुदित, कहुँ नहिं करत मराल॥
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वह रसाल है औरई, जौन सुखद हिय माँह।
अरे पथिक भटकत कहा, लखि की छाँह॥
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हरि तिय देखे ही बने, अचिरिजु अंग गुन गेह।
कटि कहिबे की जानिये, ज्यों गनिका को नेह॥
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