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रात में

raat mein

एलिज़ाबेथ जेनिंग्स

अन्य

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और अधिकएलिज़ाबेथ जेनिंग्स

    अपनी खिड़की के बाहर रात के ढलते पहर, मैं अपलक

    निहारता हूँ :

    तारों पर मेरी निगाह पड़ती है, पर वस्तुतः मैं उन्हें देखता

    नहीं

    और कानों में आती है ट्रेन की आवाज़ पर स्पष्ट उसे सुनता

    नहीं

    अपने दिमाग़ में मैं करवटें बदलता हूँ, अपने को

    जाग्रत रखने को, पर मैं वहाँ भी पूरी तरह मौजूद नहीं हूँ।

    मेरा कुछ अंश है जो वहाँ है—बाहर अँधेरे दृश्य में।

    तो आख़िर किस अंश तक मैं वह हूँ जो मैं सोचता हूँ,

    और किस अंश तक वह जो महसूस करता हूँ

    और कहाँ तक ये आँखें हैं जो इन सितारों को अपने बिंदु

    पर सीधा रखते हैं।

    जो कुछ मैं चित्त में धारण करता हूँ उसमें से

    कितना मेरे हाथ में है

    या वह मेरी दृष्टि ही है जो पर-नियंत्रित है?

    मैं अपने दिमाग़ में पलटे खाता हूँ, मेरा दिमाग़ वह कमरा है

    जिसकी दीवारों का ऊपरी सिरा तो मुझे दीखता है पर उसे मैं

    कभी पूरी तरह लाँघ नहीं पाता

    वह सब जिसे मैं प्यार करता हूँ, इसी रात की तरह, मेरे

    बाहर है,

    अच्छा लगता है उसे निहारना, ऐसी दृष्टि से मानो

    एक सहज संकेत से हम उसे अपने दिमाग़ के अंदर बुला लेंगे—

    या हृदय के अंदर—पर उसके बारे में विचारता हूँ और

    वह विचार ही मुझे

    उससे पृथक कर देते हैं। अब अपने

    बिस्तर में मैं करवट बदल लेता हूँ और बाह्य संसार

    भी दूसरी ओर घूम जाता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 117)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : एलिज़ाबेथ जेनिंग्स
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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