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चैत

chait

सिद्धेश्वर सिंह

अन्य

अन्य

और अधिकसिद्धेश्वर सिंह

    यह कोयल के बहकने का समय है

    और महुए के महकने का

    माँ इन्ही दिनों को रुक्खर दिन कहती थी

    और पिता इन्हीं दिनों में

    हो जाया करते थे उदास

    अनायास

    अब कहाँ बचीं अमराइयाँ

    जहाँ लुकाछिपी खेल सके कोयल

    जो सोए हुए पिया को जगा देती थी आधी रात

    अब कहाँ पुरखों की काया सदृश महुआ के वे बलिष्ठ पेड़

    जिनसे प्यार की तरह टपकते थे स्वर्णिम फूल

    और ललित निबंधकार गद्य में कविता रचते हुए पूछता था—

    कौन तू फुलवा बीननहारी!

    अब इसी दुनिया में एक दुनिया है कविताओं की

    जिसमें दर्ज हैं कोयल और महुए की निशानदेहियाँ असंख्य

    यह मतिभ्रम है या कि कुछ और

    कि अनिद्रा के शाप से ग्रस्त रातों में

    अक्सर सुनाई देते हैं ढोलक और झाल के लहरीले स्वर

    दीवार पर ठिठका कैलेंडर

    कह रहा है कि चैत नहीं यह मार्च है

    वित्त वर्ष का आख़िरी मास

    भले मानुष मत बहको कोयल और महुए की संगति में

    याद रहे इसी महीने निपटाना है आयकर का हिसाब-किताब

    फिर भी, इतनी आसानी से

    कहाँ उतरने वाला है महुए का नशा और चैत का खुमार!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सिद्धेश्वर सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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