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बारह

barah

दर्पण साह

अन्य

अन्य

और अधिकदर्पण साह

    वे क्रांतियों के दिन थे

    और हम

    मार दिए जाने तक

    जिया करते थे

    सिक्कों में चमक थी

    उँगलियाँ थक जाने के बाद चटकती भी थीं

    हवाएँ बहती थीं

    और उसमें

    पसीने की गंध थी

    पथरीले रास्तों में भी छालों की गिनतियाँ

    रोज़ होती थीं

    रोटियाँ

    तोड़ के खाए जाने के लिए

    हुआ करती थीं

    रात बहुत ज़्यादा काली थी

    जिसमें

    सोने भर की जगह शेष थी

    और सपने डराते भी थे

    अस्तु

    डर जाने से प्रेम स्व-जनित था

    संगीत

    नर्क में बजने वाले

    किसी दूर के ढोल सरीखा था

    हमें अपनी ग़ुलामी चुनने की स्वतंत्रता थी

    ये अब हुआ है

    सभी डराने वाली चीज़ें लगभग लुप्त हो चुकी हैं

    डायनासोर, सपने, प्रेम

    हवाओं ने

    बनाना शुरू कर दिया है

    और ख़ुशबुओं की साज़िश

    झुठला देती है

    मेहनत के किसी भी प्रमाण को

    बाज़ारों में सजी हुई हैं

    रोटियाँ

    और

    रात के चेहरे में

    गोरा करने वाली क्रीम की तरह

    पुत चुकी है निओन-लाइट

    इस तरह

    सोने भर की जगह में किया गया अतिक्रमण

    यूँ तो इस दौर में

    मरने का इंतज़ार

    एक आलसी विलासिता है

    पर

    स्वर्ग की सीढ़ी

    यहीं कहीं से होके जाती है

    यक़ीनन हम

    स्वर्ग-च्युत शापित शरीर हैं

    और शांति

    एक ‘बलात्’ आज़ादी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लुका-झाँकी (पृष्ठ 35)
    • रचनाकार : दर्पण साह
    • प्रकाशन : हिन्द युग्म
    • संस्करण : 2015

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